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Monday, September 18, 2023

uttarkashi-माँ गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा में दो दिवसीय सेल्कू मेले का समापन, मेले में दिखा दीपावली जैसा उत्सव


uttarkashi-माँ गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा में दो दिवसीय सेल्कू मेले का समापन, मेले में दिखा दीपावली जैसा उत्सव




उत्तरकाशी।।जनपद  के भारत तिब्बत सीमा से लगे 8 गांव के ग्रामीणों ने मां गंगा के मायके मुखवा में भगवान सोमेश्वर देवता की मौजूदगी में सेल्कू मेले को बड़े धूमधाम से मनाया। मेले के दूसरे दिन की रात्रि को मुखबा गांव में दीपावली जैसा उत्सव देखने को मिला ग्रामीणों के द्वारा हाथ में भेलो लेकर माँ गंगा के मन्दिर प्रंगड में भेलो के साथ  नृत्य करते नजर आए, मुखवा गांव में आठ गांवों से आये ग्रामीणों ने दीपावली जैसा उत्सव मनाया सेल्कू त्यौहार भारत तिब्बत व्यापार का प्रतीक भी माना जाता है




उत्तरकाशी के सीमांत गांव और मां गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखवा में दो दिवसीय सेल्कू मेले का समापन हो गया बताते चलें कि मुखवा, धराली सहित 8 गांव के लोग सोमेश्वर देवता की आगवाई में एक अनोखा त्योहार मनाते है जिसे सेल्कू कहते है ।मान्यता है कि शीतकाल शुरू होते ही जब भारत तिब्बत का व्यापार होता था तो लोग खुशहाली और क्षेत्र की सुख समृद्धि के लिए इस त्योहार को मनाते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया है क्षेत्र में कार्तिक माह में अत्यधिक बर्फबारी होती है और लोग यहां से अन्यत्र स्थान की ओर चले जाते हैं और यहां पर लोग कार्तिक माह की दीपावली नहीं मना पाते हैं यही कारण है कि क्षेत्र के लोग इस समय मुखबा गांव में एकत्रित होकर दीपावली का उत्सव मनाते हैं दीपावली पर्व की तर्ज पर लोग चीड़ व देवदार के छिल्लों से भैलो बनाते और रात्रि में सभी ग्रामीण एकत्रित होकर हाथों से भेलो को घुमाकर रासों एवं तांदी नृत्य करते है।इस अवसर पर ग्रामीणों के घर द्यूड़ा, स्वाले, पकौड़े जैसे पारंपरिक पकवान बनाये जाते है। मुखवा में गंगा के शीतकालीन गंगा मंदिर, धराली कल्प केदार मंदिर, को ब्रह्म कमल के फूलों से भव्य रूप से सजाया जाता है। ‌ ग्रामीण रात भर नाचते गाते रहते हैं। 




वहीं सीमांत  क्षेत्र के गांव‌ों में शनिवार रात्रि को सेल्कू पर्व का नजारा दीपावली जैसा था। रात को ग्रामीण मुखवा स्थित गंगा मंदिर परिसर, धराली के सोमेश्वर देवता मंदिर व केदार मंदिर परिसर जहां चीड़ व देवदार की लकड़ी के छिल्लों से बने भैलो की पूजा कर उन्हें जलाया गया। करीब डेढ़ घंटे तक मंदिर परिसर में भैलो नृत्य चलता रहा। बच्चे, बूढ़े, नौजवान व महिलाओं ने पहाड़ी  वेशभूषा में उल्लास के साथ भैलो खेले। इसके बाद देव पुष्प ब्रह्मकमल, जययाण, केदार पत्ती व गंगा तुलसी से सोमेश्वर देवता की पूजा-अर्चना की गई और डोली नृत्य हुआ। महिलाओं व युवकों ने रासों व तांदी नृत्य की छटा बिखेरी। इस त्योहार को मनाने के लिए ससुराल से बेटियां और प्रवासी भी पहुंचते थे। यह उत्सव पीढि़यों से मनाया जा रहा है। भारत तिब्बत के व्यापार का यह उत्सव प्रतीक है आजादी से पहले जब शीतकाल शुरू होने से पहले तिब्बत के व्यापारी यहां से लौट जाते थे और यहां के व्यापारी तिब्बत से वापस गांव आते थे, सभी उत्सव मनाया जाता था। 

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